Tuesday, April 8, 2025

Inspired by a Punjabi poem




बना-बना के मिटाता है क्यों ?



बना-बना के मिटाता है क्यों ?

राह और रास्ते भटकाता है क्यों ?


जिन्हें तू खुद इस दुनिया में लाता,

उन्हीं को फिर रुलाता है क्यों?

अगर उनहे रुलाना ही था,

उन्हें दुनिया में लाता है क्यों ?



सुंदर-सुंदर फूलों को तू,

बना-बना के मुरझाता है क्यों ?

अगर तुझे उन्हें मुरझाना ही है,

फिर तू उन्हें खिलाता है क्यों ?


नाज़ुक सी बेल ज़मीन पर ही,

भरकम तरबूज़ व पेठा उगाता है क्यों ?

बढ़े बढ़े पीपल व बेरी के पेड़ पर,

छोटे-छोटे फल लगाता है क्यों?


तू न्याय करने वाला है, फिर भी,

ऐसा अन्याय करता है क्यों ?

किसी को कुछ भी नहीं देता,

किसी को नाक तक भर देता है क्यों ?


पापियों को फूलों-सा रखता है,

गुनहगारों को खुशियाँ देता है क्यों ?

कईयों को देता है ढेरों सौगातें,

कईयों को दुखों में डुबो देता है क्यों ?


बरसात समंदर पर होती है,

रेगिस्तान सुखा देता है क्यों ?

किसी को देता है भारी बालों के गुछे,

किसी को गंजा कर देता है क्यों ?


परमात्मा का जवाबः

ये मेरी कुदरत के राज निराले,

जो इंसान की समझ से पराले,

तू ‘प्रीत’ क्यों बहलाता है?

काहे अपनी टाँग अडाले।


No comments: